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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2632
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

शात्।

अनुवाद - शकार से, परवर्ती तवर्ग के स्थान पर श्चुत्व नहीं होता है।
व्याख्या - यह श्चुत्व विधान का निषेधक सूत्र है। 'तो षि' से तो स्तोः श्चु तथा न पदान्तात् 0 से 'न की यहाँ अनुवृत्ति की जाती है। श् के बाद आने वाले तवर्ग को पूर्व सूत्र से श्चुत्व चवर्ग प्राप्त होता है पर इस सूत्र से उसका निषेध हो जाता है।

ष्टुना ष्टुः।

अनुवाद - षकार तथा ट वर्ग का योग होने पर सकार तथा तवर्ग के स्थान पर षकार तथा टवर्ग होता है।
व्याख्या - यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र है। 'स्तो श्चु0' सूत्र में इसमे 'स्तो' पद अनुवृत्त होता है। यहाँ भी यथासङ्ख्य0 सूत्र से नियमानुसार स्थानी सकार तवर्ग तथा आदेश षकार टवर्ग में संख्या क्रम है। अर्थात् स के स्थान में ष् तथा तवर्ग - त् थ् द् ध् न् के स्थान में क्रमश: टवर्ग ट् ठ् ड् ढ् ण् वर्ण होते हैं। स्थानी सकार एवं तवर्ग तथा निमित्त = षकार और टवर्ग में योग के लिए सख्या क्रम यहाँ भी अपेक्षित नहीं है। इसी से ष इस प्रथम निमित्त के साथ तवर्ग (स्थानी) का कोई भी वर्ण होने पर ष्टुत्व प्राप्त हो जाता है जिसका तोः षि सूत्र निषेध करता है। यदि ष्टुत्व प्राप्त ही न होता तो उसका निषेध कैसे होता? जैसे राम + षष्ठः, इस स्थिति में षकार के साथ होने के कारण, उस षकार के पूर्व स्थित सकार के स्थान पर ष्टुना ष्टु सूत्र से ष्टुत्व षकार हो जाने पर उक्त रूप सिद्ध होता है।

उपेन्द्रः

उप + इन्द्र:। ऐसी स्थिति में 'अदडगुण से अ और इ की गुण संज्ञा होती है। 'आदगुण' से 'अ' और 'इ' को गुण होकर उपेन्द्र रूप की सिद्धि होती है।

न पदान्ताट्टोरनाम्।

अनुवाद - पदान्त में स्थित टवर्ग से परे नाम के नकार से भिन्न सकार तवर्ग के स्थान पर षकार टवर्ग (ष्टुत्व) नहीं होता है।
व्याख्या - टुना ष्टुः निषेधक यह सूत्र है। स्तोः श्चु0 सूत्र से स्तो तथा ष्टुना ष्टु से ष्टु' पद यहाँ अनुवृत्त होता है। अनाम् शब्द की षष्ठी का यहाँ सौत्र लोप है।
षट् + सन्त - इस स्थिति में पदान्त टकार के योग में सकार को ष्टुना ष्टु सूत्र से ष्टुत्व षकार प्राप्त होता है पर 'नपदान्ताट्टोरनाम् सूत्र से ष्टुत्व निषेध हो जाता है अतः षट् सन्तः प्रयोग सिद्ध होता है।

तो: षि।

अनुवाद - तवर्ग के स्थान पर ष्टुत्व (टवर्ग) नहीं होता है, यदि षकार (तवर्ग से) परवर्ती हो।
व्याख्या - ष्टुत्व सन्धि का निषेध करने वाला यह दूसरा सूत्र है। यदि ष् से पूर्व तवर्ग का कोई वर्ण हो तो उसे प्राप्त ष्टुत्व का यह निषेधक है। न पदान्तात् से 'न' पद तथा ष्टुनाष्टु से ष्टुः की यहाँ अनुवृत्ति होती है। सूत्रारम्भसामर्थ्य से यह सूत्र निषेध करता है अन्यथा यह सूत्र ष्टुना की दृष्टि में असिद्ध है। यह भी ध्यातव्य है कि तवर्ग से परे षकार हो तब यह निषेध करता है पर तवर्ग से पूर्व षकार होने पर नहीं करता जैसे पेष् + ता = पेष्टा में ष्टुत्व ही होता है उसका यह निषेध नहीं करता।

सन् + षष्ठ - इस स्थिति में ष्टुना ष्टुः से षकार के योग में उससे पूर्ववर्ती तवर्ग नकार को ष्टुत्व है पर 'तोः षि' सूत्र से उसका निषेध हो जाता है।

झलाँ जशोऽन्ते।

अनुवाद - पद के अन्त में वर्तमान झलों के स्थान पर जश् होते हैं।
व्याख्या - यह जश्त्व विधायक सूत्र है। 'पदस्य अधिकार सूत्र की यहाँ अनुवृत्ति होती है। पदस्य का अन्वय 'अन्ते शब्द से होता है। झल् प्रत्याहार में ञ् म् ड् ण न् को छोडकर वर्गों के सभी वर्ण तथा श् ष् स् ह् वर्ण आते हैं। ज‍ में वर्ग के तीसरे वर्ण ज ब म् ड द हैं। स्थानेऽन्तरतमः की सहायता से यहाँ सदृशतम आदेश होता है। इस प्रकार सूत्र का तात्पर्य यह है कि यदि पदान्त में वर्ग का प्रथम द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ में से कोई वर्ण हो तो उसके स्थान पर उसी वर्ग का तृतीय वर्ण हो जाता है। यदि श् हो तो ज् तथा प् हो तो ड् हो जाता है। ह् को होढः से ढ तथा ससजुषोरुः से स् को रू होने से दोनों जो जश्त्व नहीं होता, जैसे-
वाक् + ईश - इस स्थिति में जशोऽन्ते सूत्र से जश्त्व जंकार होने पर वर्ण संयोग करके वागीश प्रयोग की सिद्धि होती है।

यरोऽनुनासिकेऽनु नासिको वा।

अनुवाद - पद के अन्त में स्थित यर् स्थान पर विकल्प से अनुनासिक होता है, यदि अनुनासिक वर्ण पर में हो।
व्याख्या - यह अनुनासिक का विकल्प से विधान करने वाला सूत्र है। न पदान्ताट्टोरनाम् से पदान्तात् पद की अनुवृत्ति होती है। वह यर का विशेषण है अतः षष्ठ्यन्त हो जाता है। यर् प्रत्याहार में ह् को छोड़कर समस्त व्यञ्जन आते हैं। मुख और नासिका से उच्चरित वर्ण अनुनासिक कहलाता है। स्थानेऽन्तरतम के नियमानुसार अनुनासिक स्ववर्गीय होता है अर्थात् वर्ग के स्थान पर उसी वर्ग का पञ्चम वर्ण अनुनासिक होता है। जैसे - एतद + मुरारि, इस स्थिति में पदान्त यर् द है तथा उसके पश्चात् अनुनासिक 'म' है। अतः 'यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा' सूत्र से द् के स्थान पर वैकल्पिक अनुनासिक उसी वर्ग का पञ्चम वर्ण न हो जाता है।

प्राच्छति।

अनुवाद - प्र + ऋच्छति। ऐसी स्थिति में 'उपसर्गा' क्रियायोगे से प्र की उपसर्ग सज्ञा होती है और 'भूवादयो धातव:' ऋच्छति की धातु संज्ञा होती है। तत्पश्चात् 'उपसर्द्धति धतौ इस सूत्र से अ और ऋ के आर, वृद्धि होकर यहाँ पर प्राच्छति रूप बनता है।

तोर्लि।

अनुवाद - ल् वर्ण पर में रहने पर तवर्ग के स्थान पर परसवर्ण लकार होता है।
व्याख्या - अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण सूत्र से परसवर्ण: पद यहाँ अनुवृत्त है। परस्य = बाद वाले वर्ण का, सवर्ण: = सवर्ण। यह परसवर्ण आदेश विधायक विधि सूत्र है। परसवर्ण का अर्थ है परवर्ती वर्ण का सवर्ण। पर यहाँ ल है। लकार का सवर्ण लकार ही है। अतः तवर्ग के स्थान पर सवर्ण ल ही होता है। सवर्ण कहने का फल है न् के स्थान पर अनुनासिक ल होना। अन्यथा पर जाता पर ल हैं वही ल् आदेश हो जाता है। जैसे - तल्लय तस्मिन लयः तल्लयः = उसमें लीनता अथवा तस्य लयः तल्लय = उसकी लीनता। तद् + लय इस स्थिति में तवर्गीय दकार के पश्चात् लकार होने के कारण तोर्लि सूत्र से द के स्थान पर परसवर्ण ल् हो जाने पर तल्लय प्रयोग सिद्ध होता है।

कहने से भी कार्य निर्वाह हो

खरि च। 

अनुवाद - खर् वर्ण पर में होने पर झल के स्थान पर चर हो जाता है।
व्याख्या - यह चर्च विधायक विधि सूत्र है। यहाँ 'झला जश् झशि' से 'झला' को तथा 'अभ्यासे चर्च सूत्र से 'चर की अनुवृत्ति होती है। चर का वचन परिवर्तन कर 'चर' रूप से उसे यहाँ जोड़ा गया है। खर में वर्गों के द्वितीय- प्रथम तथा श ष स हैं। झल् के अन्तर्गत वर्गों के चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय प्रथम वर्ण तथा श् ष् स् ह् आते हैं। चर के अन्तर्गत वर्गों के केवल प्रथम वर्ण तथा श ष स हैं। स्थानेऽन्तरतमः परिभाषा से अत्यन्त समान चर ही होता है। इस प्रकार सूत्रार्थ होता है - यदि वर्गों के प्रथम, द्वितीय वर्ण अथवा श ष स के बाद वर्गों में प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ वर्ण हो तो अपने वर्ग का प्रथम अक्षर तथा शु ष स हों तो श ष स हो जाता है। ध्यातव्य है कि ह् को चर्च त होकर सदैव होट. से टकार ही होता है। इस सूत्र के कार्य - 'चर आदेश होना' को चर्च होना कहा जाता है।

झयो होऽन्यतरस्याम्।

अनुवाद - झय् प्रत्याहार से परवर्ती. ह के स्थान पर विकल्प से, पूर्वसवर्ण होता है। नाद, घोष, संवार तथा महाप्राण प्रयत्न वाले ह् के स्थान पर वैसा ही वर्ग का चतुर्थ वर्ण (घ) होता है।
व्याख्या - यह वैकल्पिक पूर्वसवर्ण सञ्ज्ञा विधायक विधि सूत्र है। उदः स्था. सूत्र से पूर्वस्य तथा अनुस्वारस्य0 ययि0 से 'सवर्ण:' पद की अनुवृत्ति करने पर यहा 'पूर्वसवर्ण' पद प्राप्त होता है। सूत्रस्थ 'अन्यतरस्याम्' का अर्थ है दोनों में से एक अवस्था में अर्थात् एक पक्ष में इस अर्थ के लिए 'अन्यतरस्याम्' के एक विशेष्य अवस्थायाम की कल्पना आवश्यक है। इसी अन्यतरस्याम् का फलित अर्थ है 'विकल्प से'। पूर्वसवर्ण: = पूर्ववर्ती वर्ण का सवर्ण। क्षय् प्रत्याहार में वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा  चतुर्थ वर्ण हैं। ह् का सवर्ण वर्ग का चतुर्थ (घ. झ ढ् घ् भु) ही है क्योंकि जैसे हू का बाह्य प्रयत्न संवार, नाद घोष तथा महाप्राण है वैसे वर्ग के चतुर्थ वर्णों का भी है। अतः सूत्रार्थ इस प्रकार स्पष्ट होगा कि वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ वर्ण के बाद हकार हो तो ह से पूर्व वर्ण को विकल्प से उसी वर्ग का चतुर्थ वर्ण हो जाता है। जैसे वाक् + हरि, इस स्थिति में झलां जशोऽन्ते से क् को जश्त्व ग् होने पर बाग् + हरि: इस स्थिति में 'झायो होऽन्यतरस्याम्' सूत्र से झय् वर्ण ग् से परवर्ती ह् के स्थान पर पूर्व गृ का सवर्ण होता है।

दैत्यारिः।

दैत्य + अरि। ऐसी स्थिति में 'अकः सवर्णे दीर्घ' सूत्र से अ और अ को सवर्ण दीर्घ होकर दैत्यारिः रूप सिद्ध होता है।

मोऽनुस्वारः।

अनुवाद - हल् वर्ण परवर्ती होने पर मान पद को अनुस्वार होता है।
व्याख्या - यह सूत्र पदान्तम् को अनुस्वार करता है। 'हलि सर्वेषाम् से 'हलि' पद तथा 'पदस्य' इस अधिकार सूत्र की अनुवृत्ति होती है। अलोऽन्यस्य परिभाषा से अनुस्वार मकारान्त पद के अन्तिम अल् वर्ण म के स्थान पर होता है।
हरिम + वन्दे, इस स्थिति में 'हरिम्' पद के अन्तिम वर्ण म् के बाद हल वर्ण वकार है अतः 'मोऽनुस्वार' सूत्र से अलोऽन्त्यस्य परिभाषा सूत्र की सहायता से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार होने पर 'हरिवन्दे' प्रयोग सिद्ध होता है।

नश्चापदान्तस्य झलि।

अनुवाद - पदान्त से भिन्न न् और म् के स्थान पर अनुस्वार होता है, यदि उसके बाद झल प्रत्याहार का कोई वर्ण हो।
व्याख्या - यह भी अनुस्वार विधायक सूत्र है 'मोऽनुस्वारः' से अनुस्वार की अनुवृत्ति होती है। मोऽनुस्वारः सूत्र से पदान्त म् को अनुस्वार होता है, इस सूत्र से अपदान्त मृ को तथा न् को भी अनुस्वार होता है।
यशांसि - यशस् शब्द से प्रथमा बहुवचन में 'यशांसि' रूप होता है। यशान् + सि, इस स्थिति में न पदान्त नहीं है तथा उससे परे झल वर्ण स् है अतः 'नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से न् के स्थान पर अनुस्वार होने पर यशांसि प्रयोग सिद्ध होता है।

वा पदान्तस्य।

अनुवाद - पद के अन्त में स्थित अनुस्वार के स्थान पर वा = (यय वर्ण के परवर्ती रहने पर) विकल्प से परसवर्ण होता है।
व्याख्या - यह सूत्र पूर्वसवर्ण का वैकल्पिक विधान करता है। पूर्व सूत्र के सभी पदों की यहाँ अनुवृत्ति होती है। अनुस्वारस्य ययि सूत्र से अपदान्तनुस्वार को परसवर्ण होता है पर इस सूत्र से पदान्त अनुस्वार को परसवर्ण होता है।
स्पष्ट सूत्रार्थ - यदि पदान्त अनुस्वार के बाद पांचों वर्गों अथवा य् व् र् ल् में से कोई वर्ण हो तो पद के अन्त में स्थिति इस अनुस्वार को परसवर्ण होता है। परसवर्ण पूर्व सूत्र की भांति होता है।
त्वम् + करोषि इस स्थिति में मोऽनुस्वारः सूत्र से म् को अनुस्वार होता है तथा उसके बाद यय का वर्ण के है अतः वा पदान्तस्य' सूत्र से विकल्प से अनुस्वार को परसवर्ण ड हो जाने पर त्वङ्करोधि प्रयोग सिद्ध होता है।

मो राजि समः क्वौ।

अनुवाद - क्विप् प्रत्यय जिसके अन्त में हो राज धातु से परे होने पर सम् उपसर्ग के म् के स्थान पर म् ही होता है (अनुस्वार नहीं होता)।
व्याख्या - यह सूत्र मोऽनुस्वार से प्राप्त अनुस्वार का निषेध कर सम् के म् का ही विधान करता है। मोऽनुस्वार' से ही यहाँ म की अनुवृत्ति होती है। छिप कृदन्त प्रत्यय है। राजू दीप्तौ धातु से क्रिप् प्रत्यय करने पर 'राट् यह क्विप् प्रत्ययान्त रूप होता है।
सम्राट - सम् + राट, इस स्थिति में सम् उपसर्ग को अव्यय मानकर उसकी पद सञ्ज्ञा हो जाती है अतः सम से म को मोऽनुस्वारः से अनुस्वार प्राप्त होता है। क्विप् प्रत्यायान्त राट् शब्द सम् के बाद में है अतः 'मो राजि समः कौ' सूत्र से अनुस्वार का निषेध हो जाता है और म् को म् ही रह जाता है।

गवाग्रम।

गो + अग्रम। ऐसी दशा में 'अव स्फोटायनस्य इस सूत्र के द्वारा ओ को अवड़ आदेश होकर गव + अग्रम ऐसी स्थिति हुई अब यहाँ अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से सवर्ण दीर्घ होकर गवाग्रम रूप बनता है।

ङ सि धुट्।

अनुवाद - ड् वर्ण से, परवर्ती 'स्' को स विकल्प से छुट् आगम होता है।
व्याख्या - यह सूत्र विकल्प से घुट का आगम करता है। 'हे मपरे वा से वा' की अनुवृत्ति होती है। सूत्र में '' पञ्चम्यन्त है अतः 'तस्मादित्युत्तरम्य' के अनुसार 'ड' से अव्यवहित पर को घुट हो, यह अर्थ होता है। 'सि' सप्तम्यन्त है अतः 'तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' के अनुसार स् से अव्यवहित पूर्व को घुट् हो यह अर्थ होता है। दोनों में कौन माना जाये? 'उभयनिर्देशे पञ्चमी निर्देशों बलीयान' अर्थात् जहाँ सप्तमी और पंचमी दोनों का निर्देश हो वहाँ पंचमी निर्देश बलवान होता है। इस नियमानुसार 'तस्मादित्युत्तरस्य' का नियम ही यहाँ माना जाता है। सूत्र में जब पञ्चम्यन्त के बाद सप्तम्यन्त पद हो तब सप्तम्यन्त को षष्ठयन्त मानकर अर्थ किया जाता है, यह भी एक नियम है।
इस प्रकार सूत्र का स्पष्ट अर्थ होता है कि 'यदि ड् वर्ण के बाद व्यवधान रहित स हो तो विकल्प से स का अवयव छुट् आगम होता है। आगम तथा आदेश का अन्तर जान लेना आवश्यक है। आदेश होता है तमो स्थानी (जिसके स्थान पर आदेश होता है वह) हट जाता है और वह उस स्थान पर होता है, जैसे इ को य य आदेश इ को हटाकर उसके स्थान पर होता है। आगम किसी को हटाकर नहीं होता बल्कि वह अपने स्थानी (जिसे आगम होता है) का अवयव हो जाता है जैसे स को छुट् अगम् होने पर छूट स के साथ उसका अवयव होकर रहता है।

आद्यन्तौ टकितौ।

अनुवाद - टितृ और कित् जिसके अवयव कहे गये हो, उसके क्रम से आदि के अवयव तथा अन्त के अवयव होते हैं।
व्याख्या - यह परिभाषा सूत्र है। यथासङ्ख्य0 सूत्र के नियम से वृत्ति में क्रमात्' कहा गया है। 'घुट्' में उ तथा ट् की इत्सञ्ज्ञा होती है केवल ध् शेष रहता है। जिस आगम आदि में ट् की इत्सञ्ज्ञा हो जाये उसे 'टित्' कहा जाता है। इसी प्रकार जिसमें क् की इत्सञ्ज्ञा होती है उसे 'कित्' कहा जाता है। छुट् टित् है तथा कुक् टुक् (जो आगे वर्णित है) कित् हैं। यह सूत्र इस बात का नियमन करता है कि टित् का विधान जिससे किया गया हो वह उसका आदि अवयव होता है तथा कितु (आगम) जिससे विहित हो के उसका अन्त अवयव होता है। स को घुट् आगम हुआ है अतः स् का आदि अवयव ध् होगा अर्थात् स् पूर्व रहेगा। सूत्र का विग्रह इस प्रकार है- आदिः च अन्तः च आद्यन्तौ, ट च कः टकौ, टकौ इतौ ययो. तौ टकितौ।

ङ्ण कुक् टुक् शरि।

अनुवाद - शर् वर्ण परवर्ती हो तो ड़ और ण को विकल्प से, कुं क टु कु क्रमशः कु क और टु क आगम होते हैं।
व्याख्या - यह कुक्, टु क् आगम का वैकल्पिक विधायक सूत्र है। 'वा' की अनुवृत्ति 'हे मपरे वा' से होती है। यथासङ्ख्य0 सूत्र की सहायता से ड् को कुक् तथा ण् को टुक् आगम होता है। दोनों में 'उ' और 'क' इत्सञ्ज्ञक है। क् की इत्सञ्ज्ञा होने से ये कित् है अतः आद्यन्तौ0 सूत्र की सहायता से ङ् ण् के आदि में रहते हैं।

नश्च।

अनुवाद - नकारान्त पद से परवर्ती सकार को विकल्प से घुट आगम होता है।
व्याख्या - यह सूत्र छुट् आगम का विकल्प से विधान होता है। 'ङ सि धुट' सूत्र से 'सि' तथा 'धुट्', हे मपरे वा' से 'वा' तथा 'पदस्य' सूत्र की अनुवृत्ति होती है। तदन्त विधि होने पर 'न' का अर्थ 'नान्तस्य' हो जाता है। टित होने के कारण घुट सकार का आदि अवयव होता है। 

शि तुक्।

अनुवाद - पद के अन्त में स्थित नकार को श् वर्ण पर में होने पर विकल्प से तुक् आगम होता है।
व्याख्या - यह वैकल्पिक तुक आगम विधायक विधि सूत्र है। 'नश्च' से 'न', 'हे मपरे वा' से 'वा' तथा 'पदस्य' सूत्र की अनुवृत्ति होती है। आद्यन्तौ0 सूत्र की सहायता से यह तुक् कित होने से न का अन्त्य अवयव होता है।

डमो ह्रस्वादचि डमुण् नित्यम्।

अनुवाद - ह्रस्व से परवती, जो डम् (ङ ण् न) वे जिस पद के अन्त में हों उससे परवर्ती अच् को प्रायः डमुट् आगम होता है।
व्याख्या - ङमुट् विधायक यह विधि सूत्र है। ङमुट् में उट् की इत्सञ्ज्ञा लोप होने पर डम बचता है। डम् प्रत्याहार है। डमुट का आगम मानने पर ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिसमें ड ण् न तीनों आगम एक साथ दिखाई पड़े। अत डम के तीनों वर्णों ङ ण् न् के साथ उ टू को जोड़कर डू द गुट् नुट् आगम ही ङमुट का अर्थ माना जाता है। सूत्र में 'नित्यम्' पद क्रियाविशेषण होने से द्वि. ए. व नपुंसक लिङ्ग है। नित्यम् का अर्थ प्रायः ही है इसी से कहीं डु टु आदि नहीं भी होता, जैसे - यड़ + अन्तम् = यडन्तम्। तीनों आगम वहाँ होते हैं जहाँ ड् ण् या न वर्ण पदान्त हो, उनके पूर्व ह्रस्व वर्ण तथा बाद में अच हो। टित होने से ये अच् के आदि अवयव होते हैं। जैसे - प्रत्यङ् + आत्मा, इस स्थिति में ड् के पूर्व ह्रस्व अ तथा बाद में अच् वर्ण 'आ है अतः डमो हस्वादचि' से 'आ' को छूट आगम होता है।
सूत्र

एतन्मुरारिः।

एतद् + मुरारि। ऐसी स्थिति में 'यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको 'वा' इस सूत्र द्वारा विकल्प से दकार अनुनासिक नकार होकर एतन्मुरारि: रूप बनता है। पक्ष में जहाँ अनुनासिक नहीं होता है वहाँ एतन्मुरारि:' रूप बनता है।

समः सुटि।

अनुवाद - सम् के मकार के स्थान पर रु आदेश है यदि सुट पर में हो।
सूत्र
से
व्याख्या - सम् के म को रु करने वाला यह विधि सूत्र है। 'मतुवसोरु. सम्बुद्धौ छन्दसि' यहाँ 'रु.' की अनुवृत्ति आती है। अलोऽन्त्यस्य की सहायता से यह रु सम् के अन्त्य म को होता है। इसका उदाहरण है सम् + स्कर्ता। सुट् आगम होने पर स्कर्ता बना (सम्परिभ्या करोतौ भूषण से सुट् हुआ)। सुट् पर मे है अतः इस सूत्र से उससे पूर्ववर्ती म् को रू हुआ।

मतुवसोरु

अनुवाद - यहाँ 'मतुवसोरु' सूत्र के रु आदेश के प्रकरण में रु के पूर्व वर्ण के स्थान पर, वा = विकल्प से, अनुनासिक ( ) होता है।
व्याख्या - यह अधिकार सूत्र है। अष्टाध्यायी में 'मतुवसोरु सम्बुद्धौ छन्दसि' सूत्र से 'कानाग्रेडिते' तक रु प्रकरण है। इस प्रकरण के सूत्र 'रु आदेश करते हैं।
सूत्र का स्पष्ट अर्थ है कि इस सूत्र (अत्रानुना0) से बाद वाले यहाँ के रु प्रकरण के सूत्रों से जिस वर्ण के स्थान पर रु आदेश हो उसके पूर्व के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक होता है। अधिकार सूत्र होने से यह इस रु प्रकरण के सभी सूत्रों से अन्ति होता है। जैसे- सर + स्कर्ता, यहा रु (2) के पूर्व वर्ण अ को इस सूत्र से वैकल्पिक अनुनासिक अँ होता है जिससे से र् म्कर्ता यह स्थिति होती है।

अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः।

अनुवाद - अनुनासिक को छोड़कर रु के पूर्व वर्ण से परवर्ती अनुस्वार आगम होता है।
व्याख्या - अनुस्वारागम विधायक यह सूत्र है। मतु वसोरु से रु तथा 'अत्रानुनासिक0' से पूर्वस्य की अनुवृत्ति होती है। दोनों पद पञ्चम्यन्त होकर यहाँ जुड़ते हैं।
सूत्र का स्पष्ट अर्थ है कि जिस पक्ष में अनुनासिक नहीं होता उस पक्ष मे रु' से पूर्ववर्ती वर्ण से परे अनुस्वार का आगम होता है। यह आगम घुट् आदि की भाँति अवयव नहीं होता।
उदाहरण - अनुनासिक न होने पर जब सर स्कर्ता यह स्थिति होती तब यह सूत्र र से पूर्व 'अ' के बाद अनुस्वार () करता है और स र स्कर्ता' यह स्थिति होती है।

खरवसानयोर्विसर्जनीयः।

अनुवाद - खर वर्ण पर में रहने पर अथवा अवसान (अन्त) में स्थित पद के अन्त वाले रेफ (र) के स्थान पर विसर्ग होता है।
व्याख्या - यह विसर्ग विधायक विधि सूत्र है। रो रि' सूत्र से रः तथा पदस्य सूत्र की अनुवृत्ति होती है। सूत्र का अर्थ है - 'खर वर्ण परवर्ती हो अथवा अन्त में स्थित हो तो रकारान्त पद के स्थान पर विसर्ग होता है। अलोऽन्त्यस्य परिभाषा बल से विसर्ग अन्त्य र को होता है। जैसे- स र स्कर्ता स्थिति में र पद के अन्त में है तथा उसके बाद स् खर वर्ण है अतः र के स्थान पर विसर्ग हो जाता है जिससे संस्कर्ता स्थिति होती है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल विषयों का अन्तः सम्बन्ध बताते हुए, इसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भारत का सभ्यता सम्बन्धी एक लम्बा इतिहास रहा है, इस सन्दर्भ में विज्ञान, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण योगदानों पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- निम्नलिखित आचार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये - 1. कौटिल्य (चाणक्य), 2. आर्यभट्ट, 3. वाराहमिहिर, 4. ब्रह्मगुप्त, 5. कालिदास, 6. धन्वन्तरि, 7. भाष्कराचार्य।
  5. प्रश्न- ज्योतिष तथा वास्तु शास्त्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए दोनों शास्त्रों के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- 'योग' के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए, योग सम्बन्धी प्राचीन परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- 'आयुर्वेद' पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  8. प्रश्न- कौटिलीय अर्थशास्त्र लोक-व्यवहार, राजनीति तथा दण्ड-विधान सम्बन्धी ज्ञान का व्यावहारिक चित्रण है, स्पष्ट कीजिए।
  9. प्रश्न- प्राचीन भारतीय संगीत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  10. प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक भारतीय दर्शनों के नाम लिखिये।
  11. प्रश्न- भारतीय षड् दर्शनों के नाम व उनके प्रवर्तक आचार्यों के नाम लिखिये।
  12. प्रश्न- मानचित्र कला के विकास में योगदान देने वाले प्राचीन भूगोलवेत्ताओं के नाम बताइये।
  13. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
  14. प्रश्न- ऋतुओं का सर्वप्रथम ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?
  15. प्रश्न- पौराणिक युग में भारतीय विद्वान ने विश्व को सात द्वीपों में विभाजित किया था, जिनका वास्तविक स्थान क्या है?
  16. प्रश्न- न्यूटन से कई शताब्दी पूर्व किसने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त बताया?
  17. प्रश्न- प्राचीन भारतीय गणितज्ञ कौन हैं, जिसने रेखागणित सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया?
  18. प्रश्न- गणित के त्रिकोणमिति (Trigonometry) के सिद्धान्त सूत्र को प्रतिपादित करने वाले प्रथम गणितज्ञ का नाम बताइये।
  19. प्रश्न- 'गणित सार संग्रह' के लेखक कौन हैं?
  20. प्रश्न- 'गणित कौमुदी' तथा 'बीजगणित वातांश' ग्रन्थों के लेखक कौन हैं?
  21. प्रश्न- 'ज्योतिष के स्वरूप का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- वास्तुशास्त्र का ज्योतिष से क्या संबंध है?
  23. प्रश्न- त्रिस्कन्ध' किसे कहा जाता है?
  24. प्रश्न- 'योगदर्शन' के प्रणेता कौन हैं? योगदर्शन के आधार ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  25. प्रश्न- क्रियायोग' किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- 'अष्टाङ्ग योग' क्या है? संक्षेप में बताइये।
  27. प्रश्न- 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  28. प्रश्न- आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  29. प्रश्न- आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों के नाम बताइये।
  30. प्रश्न- 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' का सामान्य परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्य क्या है? अर्थात् काव्य की परिभाषा लिखिये।
  32. प्रश्न- काव्य का ऐतिहासिक परिचय दीजिए।
  33. प्रश्न- संस्कृत व्याकरण का इतिहास क्या है?
  34. प्रश्न- संस्कृत शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? एवं संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ और उनके रचनाकारों के नाम बताइये।
  35. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  36. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य के विकास पर लेख लिखिए।
  39. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्यगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- महाकवि कालिदास के पश्चात् होने वाले संस्कृत काव्य के विकास की विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- महर्षि वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय देते हुए यह भी बताइये कि उन्होंने रामायण की रचना कब की थी?
  42. प्रश्न- क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि माघ में उपमा का सौन्दर्य, अर्थगौरव का वैशिष्ट्य तथा पदलालित्य का चमत्कार विद्यमान है?
  43. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालते हुए, उनकी कृतियों के नाम बताइये।
  44. प्रश्न- आचार्य पाणिनि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  45. प्रश्न- आचार्य पाणिनि ने व्याकरण को किस प्रकार तथा क्यों व्यवस्थित किया?
  46. प्रश्न- आचार्य कात्यायन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  47. प्रश्न- आचार्य पतञ्जलि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  48. प्रश्न- आदिकवि महर्षि बाल्मीकि विरचित आदि काव्य रामायण का परिचय दीजिए।
  49. प्रश्न- श्री हर्ष की अलंकार छन्द योजना का निरूपण कर नैषधं विद्ध दोषधम् की समीक्षा कीजिए।
  50. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत का परिचय दीजिए।
  51. प्रश्न- महाभारत के रचयिता का संक्षिप्त परिचय देकर रचनाकाल बतलाइये।
  52. प्रश्न- महाकवि भारवि के व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- महाकवि हर्ष का परिचय लिखिए।
  54. प्रश्न- महाकवि भारवि की भाषा शैली अलंकार एवं छन्दों योजना पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- 'भारवेर्थगौरवम्' की समीक्षा कीजिए।
  56. प्रश्न- रामायण के रचयिता कौन थे तथा उन्होंने इसकी रचना क्यों की?
  57. प्रश्न- रामायण का मुख्य रस क्या है?
  58. प्रश्न- वाल्मीकि रामायण में कितने काण्ड हैं? प्रत्येक काण्ड का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  59. प्रश्न- "रामायण एक आर्दश काव्य है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  60. प्रश्न- क्या महाभारत काव्य है?
  61. प्रश्न- महाभारत का मुख्य रस क्या है?
  62. प्रश्न- क्या महाभारत विश्वसाहित्य का विशालतम ग्रन्थ है?
  63. प्रश्न- 'वृहत्त्रयी' से आप क्या समझते हैं?
  64. प्रश्न- भारवि का 'आतपत्र भारवि' नाम क्यों पड़ा?
  65. प्रश्न- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' तथा 'आर्जवं कुटिलेषु न नीति:' भारवि के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  66. प्रश्न- 'महाकवि माघ चित्रकाव्य लिखने में सिद्धहस्त थे' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  67. प्रश्न- 'महाकवि माघ भक्तकवि है' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  68. प्रश्न- श्री हर्ष कौन थे?
  69. प्रश्न- श्री हर्ष की रचनाओं का परिचय दीजिए।
  70. प्रश्न- 'श्री हर्ष कवि से बढ़कर दार्शनिक थे।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  71. प्रश्न- श्री हर्ष की 'परिहास-प्रियता' का एक उदाहरण दीजिये।
  72. प्रश्न- नैषध महाकाव्य में प्रमुख रस क्या है?
  73. प्रश्न- "श्री हर्ष वैदर्भी रीति के कवि हैं" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  74. प्रश्न- 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' श्री हर्ष ने इस कथन का समर्थन किया है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  75. प्रश्न- 'नैषध विद्वदौषधम्' यह कथन किससे सम्बध्य है तथा इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  76. प्रश्न- 'त्रिमुनि' किसे कहते हैं? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  77. प्रश्न- महाकवि भारवि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी काव्य प्रतिभा का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- भारवि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  79. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग का संक्षिप्त कथानक प्रस्तुत कीजिए।
  80. प्रश्न- 'भारवेरर्थगौरवम्' पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
  81. प्रश्न- भारवि के महाकाव्य का नामोल्लेख करते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की कथावस्तु एवं चरित्र-चित्रण पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की रस योजना पर प्रकाश डालिए।
  84. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  85. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य-कला की समीक्षा कीजिए।
  86. प्रश्न- 'वरं विरोधोऽपि समं महात्माभिः' सूक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
  88. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  90. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  91. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि कालिदास संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि हैं।
  92. प्रश्न- उपमा अलंकार के लिए कौन सा कवि प्रसिद्ध है।
  93. प्रश्न- अपनी पाठ्य-पुस्तक में विद्यमान 'कुमारसम्भव' का कथासार प्रस्तुत कीजिए।
  94. प्रश्न- कालिदास की भाषा की समीक्षा कीजिए।
  95. प्रश्न- कालिदास की रसयोजना पर प्रकाश डालिए।
  96. प्रश्न- कालिदास की सौन्दर्य योजना पर प्रकाश डालिए।
  97. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य' की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
  99. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
  100. प्रश्न- 'नीतिशतक' में लोकव्यवहार की शिक्षा किस प्रकार दी गयी है? लिखिए।
  101. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- भर्तृहरि ने कितने शतकों की रचना की? उनका वर्ण्य विषय क्या है?
  103. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
  104. प्रश्न- नीतिशतक का मूल्यांकन कीजिए।
  105. प्रश्न- धीर पुरुष एवं छुद्र पुरुष के लिए भर्तृहरि ने किन उपमाओं का प्रयोग किया है। उनकी सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
  106. प्रश्न- विद्या प्रशंसा सम्बन्धी नीतिशतकम् श्लोकों का उदाहरण देते हुए विद्या के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
  107. प्रश्न- भर्तृहरि की काव्य रचना का प्रयोजन की विवेचना कीजिए।
  108. प्रश्न- भर्तृहरि के काव्य सौष्ठव पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का विग्रह कर अर्थ बतलाइये।
  110. प्रश्न- 'संज्ञा प्रकरण किसे कहते हैं?
  111. प्रश्न- माहेश्वर सूत्र या अक्षरसाम्नाय लिखिये।
  112. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
  113. प्रश्न- सन्धि किसे कहते हैं?
  114. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- हल सन्धि किसे कहते हैं?
  116. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  117. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

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